रविवार, 2 दिसंबर 2012

कव्वाली


एक असफल प्रयास गजल लिखने का गजल नहीं बन सकी तो कव्वाली हो गई 
मौसम बदल जाये वो मंजर दे
तपते हुवे  जून को  नवंबर दे

उनकी बकरी ने लूट ली महफ़िल
शेर गुस्से में है जरा खंजर दे

नपाक जमीं पर कसाब बोते हैं
कोख सूनी या फिर बंजर कर दे

मंजर दिखा रहे हैं बारूदों का
लग जाये गले ऐसा मंतर दे

भ्रष्टाचार  है  या ये  है   दीमक
इनको चट कर जाऊं वो जहर दे

आदमी है यहाँ जमूरे की तरह
हाथ जनाब के  कोई बन्दर दे

बेख़ौफ़  संसद में   वो बैठे  हैं
बंद आँख की तौल उन्हें अंदर दे

लबालब तेल फिर भी बुझा हुवा
इन चिरागों  को रोशनी भर दे

लड़ रहे है लगा के मुँह से मुँह
मसुर की दाल मुँह में मुगदर दे  

हर मोड़ लैला मजनूं दिखते हैं
उदास भीड़ के हाथ कोई पत्थर दे

देख दिल्ली का ना सिर फिर जाये
अम्मा असरदार को असर कर दे

ये जुबाँ बे जुबाँन  हुवे जाती है
इन तल्ख़ जुबाँ को कोई लंगर दे

दौलते पंख लिए  वो उड़ते हैं
हवाओं इन गुरुरों के पर क़तर दे