मंगलवार, 20 नवंबर 2012

दोहे


ठेस
जिन की ख़ातिर मैं मरा, मिले उन्हीं से शूल |
चन्दन अपने पास रख, मुझ को दिये बबूल ||

गर्व सदा जिन पर किया ,धन माया को  जोड़|
वे  ही  कांधे  पर तुझे  , आये  मरघट  छोड़||

उम्मीद
पिया मिलन की आश में, मन ज्वाला बरसाय|
पल पल बीता जा रहा, उमर न ढहती जाय||

सौंदर्य
लरजत फरकत होंठ हैं ,तिरछी नजर कटार|
ओंठ दाँत से चाबती, गाल हुवे अंगार||

आश्चर्य
संसद पारित हो गई,ऐसी ही तरकीब|
दौलत अपनी बाँट के, नेता हुए गरीब||

हास्य व्यंग्य
इम्तहान की कापियाँ ,ली गइयन ने खाय|
गुरुजी गोबर देखकर , नम्बर रहा बनाय ||

विरोधाभास 
गरम चाय को फूंक लो, ठंडी वो हो जाय|
धुँवा परत अंगार को, फूंकत आग लगाय||  

सीख
दूध फटा  गम तो हुआ ,  कैसे पीयें चाय|
रसगुल्ला बनवायके ,घर घर दियो बँटाय ||

तना तना इठलात है,पल में दिया उखाड़|
जो डाली झुक जात हैखड़ी रहत है ठाँड़||

उमाशंकर मिश्रा 

सोमवार, 12 नवंबर 2012


               श्री प्रतुल वशिष्ठ उदगार :-तुलसी केशव ....


भारतीय संस्कृति इतनी समृद्ध है कि आप यदि हर त्योहार के नाम का एक-एक मनका भी माला में पिरो लें तो भी कम-से-कम दो-तीन मालाएँ जाप के लिए हमारे आपके हाथ में होंगीं।

रविकर जी, मैंने आपकी और अरुण जी जैसी आशु कविताई की वर्तमान में कभी कल्पना भी नहीं की। आप और अरुण जी वर्तमान साहित्य जगत के सिरमौर हैं। कभी मन में एक कसक थी कि वर्तमान में सूर-तुलसी-केशव जैसे कवि क्यों नहीं होते। मन में ये सुकून है कि अब उसकी भरपायी हो गयी है। अरुण निगम जी और आप जिस निष्ठा से साहित्य की सेवा में लगे हैं वह अद्भुत है, सराहनीय है, वन्दनीय है।


आप जैसे आदरणीय कविश्रेष्ठ बंधुओं से आशीर्वाद मिले तो जबरन कोशिश से बने कवियों पर माँ शारदा की कृपा होवे।


दीपावली की अनंत शुभकामनाओं के साथ चरण-स्पर्श।

आदरणीय प्रतुल जी आपके द्वारा व्यक्त उदगार को पढ़ मै अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ|
पाठशाला में जब भक्तिकालीन कवियों के छंद पढता था सोचता था इस काल में शायद हि ऐसे
कवि जन्म लेंगे| अरुण निगम रविकर जी अम्बरीश श्रीवास्तव जी सौरभ पांडे जी इनके अतिरिक्त  भी यहाँ अनेक विद्वान जन हैं जिनको पढ़ ऐसा लगता है की मै उस युग में हूँ|

सहमत हैं हम आपसे, आदरणीय वशिष्ठ
रवि अरुण हैं बांचते,  कविताएँ उतकृष्ट

अरुण वृक्ष साहित्य के,फल देखत हम दंग
दोहे ऐसे फूलते,  सुमन खिले बहु रंग

कहीं सवैय्या कुंडली,मन को लेती जीत
कहीं गीत रस धारिणी,लगे मीठ भर प्रीत

रविकर जादूगर भये, शब्दन मायाजाल
कुण्डलियाँ जब छोड़ते, भाव करे बेहाल

सही प्रतुल जी ने कहा, तुलसी केशव आज
कवि ह्रदय में बस रहे, हमको इनपर नाज 
उमाशंकर मिश्रा    
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